Tuesday, September 23, 2014

जम्भाष्टक

जम्भाष्टक

ओऽम् मुखे चारू शोभं महामन्द हास्यं,
करे जाप्य मालं गले जीर्ण चैलम्।
महागैर रक्तं शिरस्थान जूटं,
परब्रह्म रूपं भजे जम्भमीशम्।।1।।
स्थले चोपवेशं वरे धूर वेष्टं,
मुखे शब्दशास्त्रं श्रुतेः पार जातम्।
जनैर्वेष्टमानं सदा साधु वृन्दे,
परब्रह्म रूपं भजे जम्भमीशम् ।।2।।
अदृश्योदरं दृष्टभूतं तथापि,
सदैवाभि मन्त्रं महायोग सिद्धेः।
करे चारू पात्रं महावृक्षफालं,
परब्रह्म रूपं भजे जम्भमीशम्।।3।।
स्वयं शेष रूपं स्वयं ब्रह्म रूपं,
सदा निर्विकारं सदा मात्र देहम्।
महाकांति शोभं जितं षड्गुणेशं,
परब्रह्म रूपं भजे जम्भमीशम्।।4।।
गतं रोग शोकं गतं द्वेष रागं,
गतं पाप पुण्यं गतं क्रोध कामम्।
गुणातीत विष्णु निराकार रूपं,
परब्रह्म रूपं भजे जम्भमीशम्।।5।।
दयाज्ञान सिन्धु ध्रुवं लोक बन्धुं,
शुचिं शीलवन्तं शुभालोकवन्तम्।
कृतं पाप दूरं मनो वाक् दूरं,
परब्रह्म रूपं भजे जम्भमीशम्।।6।।
कृतानन्द भक्तं निवृताक्षे लब्धं,
विनाक्षैप्र्रभुक्तिं जनस्यातिहार्दम्।
मुखख्यातबोधं गतिं देहिनां च,
परब्रह्म रूपं भजे जम्भमीशम्।।7।।
महायोगवेेद्यं हतं पापिनां च,
नृणामेकगम्यं जलानाभिवाब्धि।
महादैत्य नाशं सदा धर्म पालं,
परब्रह्म रूपं भजे जम्भमीशम्।।8।।

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