Tuesday, September 23, 2014

बिश्नोई धर्म का प्रवर्तन (सम्वत् 1542)

बिश्नोई धर्म का प्रवर्तन (सम्वत् 1542)

                         सम्वत् 1542 तक जाम्भोजी की कीर्ति चारों और फेल गई और अनेक लोग उनके पास आने लगे व सत्संग का लाभ उठाने लगे। इसी साल राजस्थान में भयंकर अकाल पड़ा। इस विकट स्थिति में जाम्भोजी महाराज ने अकाल पीडि़तों की अन्न व धन्न से भरपूर सहायता की। जो लोग संभराथल पर सहायत हेतु उनके पास आते, जांभोजी महाराज अपने अखूठ (अकूत) भण्डार से लोगों को अन्न धन्न देते। जितने भी लोग उनके पास आते, वे सब अपनी जरूरत अनुसार अन्न जले जाते। सम्वत् 1542 की कार्तिक बदी 8 को जांभोजी महाराज ने एक विराट यज्ञ का आयोजन सम्भराथल धोरे पर किया, जिसमें सभी जाति व वर्ग के असंख्य लोग शामिल हुए। गुरू जाम्भोजी महाराज ने इसी दिन कार्तिक बदी 8 को सम्भराल पर स्नान कर हाथ में माला औरमुख से जप करते हुए कलश-स्थापन कर पाहल (अभिमंत्रित जल) बनाया और 29 नियमों की दीक्षा एवं पाहल देकर बिश्नोई धर्म की स्थापना की।  इस विषय में कवि सुरजनजी पूनियां लिखते हैं-
                      करिमाला मुख जाप करि, सोह मेटियो कुथानं।                             पहली कलस परठियौ, सझय ब्रह्मांण सिनान।।
उस समय लोगों ने गुरु महाराज द्वारा स्थापित इस नवीन सम्प्रदाय के प्रति विशेष उत्साह दिखाया था। लोगों के समूह के समूह आकर पाहल ग्रहण करके दीक्षित होने लगे थे। हजूरी कवि समसदीन ने एक साखी में संभराथल पर दीक्षित होने आते हुए लोगों का वर्णन इस प्रकार किया है-
                      हंसातो हंदीवीरां टोली रे आवै, सरवर करण सनेहा।                      जारी तो पाहलि वीरा पातिक रे नासे, लहियो मोमण एहा।
कवि उदोजी नैण के अनुसार यह उत्तम पंथ है। यदि जांभोजी बिश्नोई पंथ नहीं चलाते तो पृथ्वी पाप में डूब जाती-
                      नीच थका उत्तिम किया, न्यानं खडग़ नाव अती।                      उत्तिम पंथ चलावियो उदा, प्रथी पातिंगा डूबती।।
एक अज्ञात साखीकार ने इसे 'सहज पंथÓ कहा है-
                      कलिकाल वेद अर्थवण, सहज पंथ चलावियो।
                      संभराथल जोत जागी, जग विणण आवियो।ÓÓ
जाम्भोजी से पाहल लेकर सर्वप्रथम बिश्नोई बनने वालों में पूल्होजी पंवार थे। ये 29 नियम बिश्नोई समाज की आचार संहिता है। बिश्नोई समाज आज तक इन नियमों का पूरी दृढ़ता से पालन करता आ रहा है। बिश्नोई बनाने का यह कार्य अष्टमी से लेकर कार्तिक अमावस (दीपावली) तक निरंतर चलता रहा। महात्मा साहबरामजी ने जम्भसार के आठवें प्रकरण में लिखा है-
                      आदि अष्टमी अंत अमावस च्यार वरण को किया तपावस।                      दीपावली कै प्रात: ही काला बारहि कोड़ कटे जमजाला।।
इस प्रकार सभी जाति, वर्ण व धर्म के लोगों द्वारा पाहल लेकर बिश्नोई बनने की  प्रक्रिया शुरू हुई और बिश्नोई धर्म का प्रवर्तन हुआ। जाम्भोजी महाराज का भ्रमण व्यापक था। उन्होनें भारत के लगभग सभी प्रदेशों का भ्रमण किया। भारत के बाहर भी लंका, काबुल, कंधार, ईरान व मक्का तक जाने की बात भी कही जाती है। उन्होनें अपने एक सबद  (शुक्ल हंस संख्या 63) में कई स्थानों पर जाने का वर्णन किया है। उनकी वाणी व उनके महान व्यक्तितत्व का प्रभाव सभी लोगों पर पड़ा, जिनमें राज वर्ग, साधु संत और गृहस्थी भी थे। बिश्नोई धर्म में लोगों के शामिल होने के कई प्रधान कारण थे जैसे- 
1. जाम्भोजी का महिमामय व्यक्तित्व 
2. परोपकारी वृति 
3. ज्ञानोपदेश 
4. जिज्ञासा और शंका का समाधान 
5. सम्प्रदाय की श्रेष्ठता 
6. कार्य विशेष की सिद्धि 
7. जीव दया (अंहिसा) एवं हरे वृक्षों को न काटना,आदि-आदि।

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